शापित अनिका: भाग १३

"अनर्थ...." स्वामी अच्युतानंद साधना से बाहर आते ही बोले- "ये सही नहीं हो रहा है।"


स्वामी अच्युतानंद इन दिनों स्वामी शिवदास के मेहमान थे और ऋषिकेश स्थित उनके आश्रम में ही रह रहे थे। इस वक्त स्वामी शिवदास उन्हें दोपहर के भोजन का आमंत्रण देने आये थे और उन्हें साधनारत देख उनके जागने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

"आप किस विषय में कह रहे हैं अच्युतानंद जी?" स्वामी शिवदास चौंककर बोले।

"अनिका ने आशुतोष का प्रेम- प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया है शिवदास जी। इसका अर्थ आप जानतें ही हैं। आशुतोष अब हमसे सहायता लेने को तैयार नहीं और इस घटना से अघोरा उस बंधन से मुक्त हो जायेगा, जो गुरू महेन्द्रनाथ ने उसपर ड़ाला था।" 

स्वामी अच्युतानंद की बात सुनकर स्वामी शिवदास के मुख पर भी चिंता की रेखायें स्पष्ट दिखने लगी। चिंतित होकर बोले- "परन्तु सब विस्तारपूर्वक जानकर भी वो दोनों ऐसी भूल कैसे कर सकते हैं? इस कृत्य का उसे और अनिका को क्या दुष्परिणाम भुगतना होगा, ये तो उनकी कल्पना से भी परे है।"

"परन्तु कदाचित ये हमारी ही भूल थी, जो हमने गुरू महेन्द्रनाथ के बंधन के विषय में उनसे चर्चा नहीं की!" स्वामी अच्युतानंद बोले- "परन्तु समस्या इससे भी विकट है। वो इस समय बदलगढ़ की सीमा में है, जिसका अर्थ है...."

"अनर्थ...." बात शिवदास जी ने पूरी की।

"और सबसे बड़ी समस्या ये है कि हम उनसे मानसिक संपर्क स्थापित नहीं कर पा रहें हैं।" स्वामी अच्युतानंद बैचेन होकर बोले- "कोई शक्ति है, जो हमारी मानसिक तरंगो को उन तक पहुंचने से रोक रहा है।"

"कदाचित अघोरा?" स्वामी शिवदास कुछ सोचकर बोले- "जो नहीं चाहता कि हम उन्हें कोई दिशा- निर्देश दे पायें।"

"तो अब हमें क्या करना चाहिये? उस क्षेत्र में प्रवेश कर उनकी सहायता करने का अर्थ है अघोरा का प्रकोप। परन्तु उन दोनों को इस असहाय स्थिति में भी नहीं छोड़ा जा सकता।" स्वामी अच्युतानंद तनिक विचलित होकर बोले।

"कदाचित जाना तो पड़ेगा ही अच्युतानंद जी! परन्तु अभी सही समय नहीं है।" स्वामी शिवदास बोले- "अभी गुरू महेन्द्रनाथ का लगाया प्रतिबंध हटा नहीं परन्तु जिस क्षण भी उन दोनों ने प्रेमोन्मत हो एक- दूसरे का स्पर्श किया उसी क्षण से अघोरा का अध्याय शुरू होगा। कदाचित अब ये मामला हमारे हाथ से निकल चुका है। अब तो केवल आशुतोष पर विश्वास रखना होगा कि वो अपने कथन पर अड़िग रहकर इस अमावस्या से पूर्व अघोरा का अंत कर दे अन्यथा हमें अनिका के प्राण हरने ही होंगें।"

"परन्तु महात्मन! हमें सही समय और उनकी स्थिति का ज्ञान कैसे होगा? अघोरा ने तो उनपर ऐसा मंत्र- जाल ड़ाला है कि हमारी दूरदृष्टि भी अब उन्हें देख पाने में असमर्थ है।"

"हमारी दूरदृष्टि असमर्थ है मित्र! परन्तु इस संसार में तीन महाशक्तियों की दृष्टि से कुछ भी नहीं छिपा है। अब उन्हीं की कृपा- दृष्टि से हम आशुतोष और अनिका का अवलोकन करेंगें।" स्वामी शिवदास मुस्कुराकर बोले- "परन्तु पहले आप आहार ग्रहण करने हेतु पाकशाला की ओर प्रस्थान करें।"

* * *


हरे- भरे पेड़ों की छांव और सर्पिलाकार पहाड़ी सड़क पर चलते हुये शाम होते- होते अनिका और आशुतोष ने पौड़ी में पदार्पण किया। आशुतोष यूं तो दिल से बहुत खुश था लेकिन वो अपना उल्लास प्रकट नहीं कर पा रहा था। इसके विपरीत अनिका काफी फ्रैंक लड़की थी लेकिन आज वो भी अपने स्वभाव के उलट चुप थी और शर्मा रही थी। प्रेम- प्रकटीकरण के बाद से दोनों में कोई बात नहीं हुई थी। आशुतोष ने एक होटल में दो कमरे लिये और दोनों पौड़ी- दर्शन करने निकल पड़े।

"पौड़ी तो पहुंच गये.... अब आगे क्या करना है?" अनिका ने बिना सिर उठाये पूछा।

"पता नहीं.... देवलगढ़ के देवल देवी मंदिर जाने को कहा था, लेकिन मंदिर गूगल पर मिल ही नहीं रहा।" आशुतोष ने गहरी सांस छोड़ी।

"बाद में आराम से ढूंढ लेंगें पहले इन खूबसूरत वादियों का दीदार तो कर लें।" अनिका मुस्कुराकर बोली।

"हां, इनकी खूबसूरती भी बिल्कुल तुम्हारी तरह है।" आशुतोष की नजरें अनिका के चेहरे पर टिक गईं।

"क्या हुआ? ऐसे क्या देख रहे हो?" अनिका असहज होकर बोली।

"मोम के पास जरा सी आग लाकर देखूं....
हो इजाजत तो तुम्हें हाथ लगाकर देखूं...."  आशुतोष ने राहत इंदौरी साहब का शेर चेपा तो इस शायराना जवाब पर अनिका खिलखिलाकर हंस पड़ी।

"कल- परसों शादी तो कर ही रहे हैं, अगर जिंदा रहे तो फिर तो पूरी जिंदगी साथ ही बितानी है।" अनिका शरारती अंदाज में बोली।

"पता है शादी के नाम पर मुझे वो वाली फीलिंग्स आ रही है, जो बकरे को आती होगी मंदिर जाते हुये।" आशुतोष हंसकर बोला- "देवी- दर्शन के बाद प्रसाद नहीं ड़ायरेक्ट ऊपर का टिकट...."

"क्यों? ड़र गये? अभी तो कोटद्वार तक बड़ी- बड़ी बातें कर रहे थे कि बीस दिन और अघोरा का खेल खत्म.... अब क्या हुआ?" अनिका मजाक उड़ाते हुये बोली।

"पहले मुझे सिर्फ तुम्हें बचाना था अनिका.... वो एक सुसाइड़ल अटैम्प होता। पहले नथिंग टू लूज वाला हिसाब था लेकिन अब मैं जानता हूं कि मुझे जिंदा रहना है.."

"सही कहा...."अनिका ने आशुतोष की आंखों में झांकते हुये कहा- "मुझसे वादा करो कि तुम जिंदा रहोगे। भले ही कुछ भी हो जाये....!"

"और तुम भी। हम दोनों को जिंदा रहना है। दोनों को मेरे सिर की कसम...." आशुतोष हंसकर बोला- "और कसम टूटी तो तुम जानती हो कि क्या होगा?"

* * *


वो अंधकार से भरी हुई एक गुफा थी, जिसके मध्य में बस एक यज्ञ- वेदी प्रज्वलित थी। यज्ञ- वेदी के चारों तरफ बिखरे हुये मानव- मुंड और अस्थियां यज्ञ- धारक के वामपंथी होने का प्रमाण दे रहे थे। यज्ञ- कुंड से कुछ दूर एक व्यक्ति अंधकार में समाया था, जिसके वहां होने का परिचय मात्र उसकी दो लाल आंखे ही दे रहीं थी। उसके अट्टाहास से वो पूरी गुफा गुंजायमान थी।

"महेन्द्रनाथ!" वो हंसते हुये कह रहा था- "हमारे ऊपर ड़ाले गये तुम्हारे बंधन से मुक्त होनें में बस कुछ ही समय शेष है.... उसके बाद इस समस्त ब्रह्मांड पर मात्र अघोरा का शासन होगा। हमारे साथ किये गये अन्याय का दंड़ सम्पूर्ण ब्रह्मांड भुगतेगा। एक बार धूम्रपाद का शरीर हमें मिल जाये तो हम देवों और असुरों से अपराजेय हो जायेंगें और माता पार्वती के दिव्य- अंश से जन्मी अनिका को अपने वाम- भाग में स्थापित कर त्रिदेवों के समकक्ष हो जायेंगें। फिर इस सम्पूर्ण धरा पर विनाश ही विनाश होगा।"

वहीं दूसरी तरफ अनिका और आशुतोष रात खाना- पीना करने के बाद आठ बजे होटल लौटे और कुछ देर बातें कर अपने- अपने कमरे में आ गये। आशुतोष ने कुछ देर देवल- देवी के मंदिर के बारे में नेट पर पता किया और फिर सो गया। रात को करीब बारह बजे एक अजीब सी बदबू से उसकी नींद खुली।

उसके पूरे कमरे में एक अजीब सी दुर्गंध फैल गई थी, मानों कोई जानवर सड़ रहा हो। उसे अपने कमरे में किसी के होने का एहसास हुआ। कोई था, जो उसे घूर रहा था। उसने हड़बड़ाहट में बगल की टेबल पर रखा अपना फोन उठाया और टॉर्च जलाकर चारों तरफ देखा पर उसे कुछ नजर नहीं आया लेकिन दुर्गंध के मारे उसका सिर फटा जा रहा था। खिन्न मन से उठकर उसने कमरे की लाइट जलाई और ढूंढने लगा कि अचानक से कमरे में ये बदबू कहां से आ रही है।

लाइट जलाकर वो आगे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी अचानक से लाइट में स्पार्किंग शुरू हो गई। लाइट जल- बुझ रही थी, जिससे कुछ भी साफ- साफ देखना नामुमकिन था।

"व्हट द है...." उसने मुड़ते हुये कहा लेकिन उसकी बाकी बात मुंह में ही रह गई। उसके पीछे एक काला साया खड़ा था, जिसने काला लबादा ओढ़ा था। उसका पूरा चेहरा बालों से ढका था, जिनके बीच से वो लाल आंखे उसे घूर रहीं थी।

आशुतोष ने एक नजर ऊपर से नीचे तक उसे देखा तो पाया कि उसका पूरा शरीर धुंये से बना था, मानों किसी धुंये के शरीर पर लबादा ओढ़ा दिया गया हो।

"क.... क.... कौन हो तुम?" आशुतोष ने डरते- डरते हकलाकर पूछा।

"तुम्हें क्या लगा कि महामहिम अघोरा से जीतना इतना आसान होगा? इस दुनिया में उनसे शक्तिशाली और कोई नहीं है।" उस साये के मुंह खोलते ही कमरे में दुर्गंध का सैलाब आ गया। आशुतोष एक हाथ से नाक- मुंह ढ़ककर उल्टी रोकते हुये बोला- "प्लीज सिस्टर! क्या आप थोड़ी दूरी मेंटेंन करके बात कर सकतीं हैं? आपका परफ्यूम कुछ ज्यादा ही तेज है।"

"दूरी? अब तो जल्द ही तुम भी हमारी तरह महामहिम अघोरा के एक तुच्छ से सेवक बनकर रहोगे।" साये ने अट्टाहास किया।

"अगर मैं गलत नहीं हूं, तो क्या आप ही ने उस दिन गाड़ी में हमला किया था?" आशुतोष ने आत्मा के चारों तरफ चक्कर काटते हुये कहा, मानों उसकी पहचान कर रहा हो।

"हा.... हा.... अपनी मौत को आखिर तू पहचान ही गया। मैंनें ही महामहिम के कहने पर तुमपर हमला किया था। महामहिम को तुम्हारे और उस लड़की के अपनी सीमा में प्रवेश का इंतजार था। अब चूंकि तुम उनके इतने करीब हो तो मुझे तुम्हें मारने का हुक्म मिला है।"

"ओह.... लेकिन आई एम सो सॉरी सिस्टर कि तुम मुझे मार नहीं पाओगी।" आशुतोष मुस्कुराते हुये उससे दूर जाने लगा तो साये ने उसपर झपट्टा मारा लेकिन वो खुद ही एक झटके से पीछे की तरफ गिर पड़ी। दरअसल उस आत्मा के चारों तरफ घूमते हुए आशुतोष ने उसके चारों तरफ एक पाउडर बिखेर कर घेरा बना दिया था।

"तुम्हारे चारों तरफ सिद्धबली हनुमान के यज्ञ की भभूत है सिस्टर...." आशुतोष मुस्कुराकर बोला- "इसीलिये तो कहतें हैं कि कोई भी काम कॉन्सन्ट्रेशन और सतर्कता के साथ करना चाहिये। अफसोस.... ऊपरवाले ने तुम प्रेतों को ताकत तो बहुत दी लेकिन दिमाग देना भूल गया।"

"मुझे मुक्त करो...." दो- तीन बार घेरे से निकलने का असफल प्रयास कर आत्मा गुर्राई- "वर्ना...."

"पागल समझा है क्या? जब शिकार सामने था तो दबोचा क्यों नहीं?" आशुतोष हंसा- "अब तो पहले अघोरा का पता बताओ, तभी इस घेरे को खोलूंगा।"

"नहीं बताऊंगी...." आत्मा ने अट्टाहास किया- 

"तुझे क्या लगता है कि महामहिम अघोरा तक पहुंचना इतना आसान होगा?"

"यार मेरी तो बस यही रिक्वेस्ट है भगवान से कि अघोरा भी तुम्हारी तरह कम दिमाग वाला निकले। और तुम जब तक मेरे सवालों का जवाब नहीं देती इसी बंधन में रहोगी।" आशुतोष मुस्कुराकर बोला।

"मुझे बांधकर कोई फायदा नहीं होने वाला। अब तक तो महामहिम का काम भी पूरा हो गया होगा।" शैतान आत्मा वीभत्स हंसी हंसकर बोली।

"कौन सा काम?" आशुतोष चकराया सा बोला लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।

"पता है तुम जैसी आत्माओं के लिये हम इंसानों में एक कहावत है.... कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।" आशुतोष गुर्राया- "आखिरी बार प्यार से पूछ रहा हूं, बता दो कि अघोरा तक कैसे पहुंचू?" 

लेकिन जवाब में सिर्फ शैतानी हंसी थी- "तू क्या हमें बेवकूफ समझता है? मेरा काम सिर्फ तुझे उलझाना था और वो मैं कर चुकी।"

अब आशुतोष के सब्र का बांध टूट गया। उसने जेब में हाथ ड़ालकर राख निकाली और घेरे में कैद आत्मा पर लगातार तीन मुठ्ठी राख छिड़क दी। आत्मा की चीखें इतनी प्रबल थीं कि एक पल को लगा मानों तूफान आ गया है। कमरे की सब चीजें इधर- उधर गिरने लगीं लेकिन बिना विचलित हुये आशुतोष उस आत्मा पर भभूत फेंकता रहा।

"रूको.... और नहीं.... मैं जल रहीं हूं। मैं बताऊंगी पर ये भभूत ड़ालना बंद करो।" अंततः उस दुष्ट आत्मा ने चिल्लाकर कहा।

"अब आई न रास्ते पर...." आशुतोष मुस्कुराकर बोला और एक मुठ्ठी राख फिर से हवा में उछाल दी, जिससे उस आत्मा की चीख निकल गई।

"तो बताओ.... कौन से काम के लिये मुझे उलझाने आई थी? और ये भी कि मैं अघोरा तक कैसे पहुंचू?" 

"मुझे आदेश था कि एक घड़ी तक तुम्हें उलझाकर रखना है, ताकि वो अपना काम कर सकें। तुमने अनजाने में महामहिम को उस बंधन से मुक्त कर दिया, जो महेन्द्रनाथ ने ड़ाला था।" उसने बोलना शुरू किया- "इसलिये अब वो कहीं भी आ- जा सकतें हैं।"

"महेन्द्रनाथ ने अघोरा पर कौन सा बंधन ड़ाला था और क्यूं?" आशुतोष की जिज्ञाषु प्रवृति जाग उठी।

"महेन्द्रनाथ नाथ- संप्रदाय के बहुत माने हुये संत थे।" उसने बताना शुरू किया-

विशम्भरनाथ के वंश में छ: पीढ़ी पहले ठाकुर भवानी सिंह हुये, जिनके नाम से आज वो गांव भवानीपुर कहलाता है। वो जमींदार थे और अंग्रेजों के अन्याय से अपनी प्रजा को यथाशक्ति बचाकर रखते थे। उनके घर भी एक कन्या जन्मीं थी, जिसका नाम अरूंधती था। वो उनके बुढ़ापे की संतान थी इसलिये उसपर उनका अति- स्नेह था। और उसने भी अपने गुणों से सारे परिवार और गांव का मन मोह लिया था। भाई नरेन्द्रसिंह के तो उसमें प्राण बसते थे।

एक बार ठाकुर भवानी सिंह की तबीयत बहुत बिगड़ी और उन्हें पता चल गया कि अब वो कुछ ही दिन के मेहमान हैं। उन्होनें अघोरा के प्रकोप की कहानी बेटे नरेन्द्रसिंह और बेटी अरूंधती को सुनाई और अगले ही दिन इस दुनिया से कूच कर गये। उन्हीं दिनों स्वामी महेन्द्रनाथ भी घूमते- घामते शिवपुर यानि आज के भवानीपुर पहुंचे। अरूंधती ने अघोरा के प्रभाव से बचने के लिये खुद को भगवान शिव को समर्पित कर दिया था और देवदासी (साध्वी) बनकर गांव के शिव- मंदिर में निवास कर रहीं थीं।

महेन्द्रनाथ ने भी उसी शिवालय में आश्रय लिया और अरूंधती ने उनकी खूब सेवा की। उसकी सेवा से महेन्द्रनाथ बहुत खुश हुये और कुछ मांगने को कहा, लेकिन उसने मुस्कुराते हुये इंकार कर दिया। उसकी निःस्वार्थता देख महेन्द्रनाथ मन में हर्षाये और बोले- "पुत्री.... अगर कोई बुजुर्ग प्रसन्नचित होकर कुछ देना चाहे, तो मांगने या लेने में कदापि संकोच नहीं करना चाहिये।" स्वामी जी के समझाने पर अरूंधती ने पिता से सुनी अघोरा के प्रकोप की पूरी कहानी कही और बोली- "गुरूजी! अगर संभव हो तो इस श्राप को खंडित कर दीजिये। मैं तो सेवा- व्रत ले चुकी लेकिन ताकि भविष्य में मेरे वंश में जन्मीं किसी अन्य कन्या को यह दंश न झेलना पड़े।" इतना कहकर अरूंधती ने स्वामी महेन्द्रनाथ के चरणों में मस्तक रख दिया।

महेन्द्रनाथ को तो अनेकों सिद्धियां थीं इसलिये एक ही क्षण में अघोरा के सारे कुकृत्यों को जान गये और अरूंधती को साथ लेकर उसकी आत्मा को मुक्त कराने उसके गढ़ कांडगढ़ की तरफ बढ़ चले। हजार साल पहले कांडगढ़ पर अघोरा का कोप टूटा था और पूरा कांडगढ़ वीरान हो गया था, जहां अब अघोरा का राज था। उसने कांडगढ़ के महल को तो अपनी शक्तियों से छिपा रखा था लेकिन महेन्द्रनाथ ने अपनी सिद्धियों की मदद से गढ़ में प्रवेश पा लिया और अघोरा से भयंकर तंत्र- युद्ध किया। अघोरा लगभग हार गया था लेकिन उसने आखिर में धोखे से महेन्द्रनाथ को मार ड़ाला।

अघोरा के पास शरीर नहीं था, इस बात का उसे फायदा मिला और स्वामी महेन्द्रनाथ हार गये, लेकिन मरते- मरते उन्होनें अघोरा को उसी महल में बांध दिया। उन्होनें श्राप दिया कि अब से वो उसी महल में बंधकर रहेगा और वो इस बंधन से तब ही मुक्त होगा, जब धूमसिंह के वंश का पुत्र और धर्मपाल सिंह के वंश की कन्या उसके नाश हेतु जन्मेंगें और प्रेमोन्मत होकर एक- दूसरे को स्पर्श करेंगें। 

"कल जब तुमने और अनिका को प्यार से एक- दूसरे को छुआ तो उसका बंधन टूट गया और वो अनिका को लेने यहां आ पहुंचा।" दुष्ट आत्मा ने अट्टाहास के साथ अपनी बात खत्म की।

"व्हट? यहां आ पहुंचा मतलब?" आशुतोष हड़बड़ाकर उठा और सीधे अनिका के कमरे की तरफ दौड़ा। उसके कमरे का दरवाजा खुला था।

"अनिका.... अनिका...." उसने कमरे में घुसते ही आवाज लगाई लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। बौखलाहट में उसने लाइट जलाई और पूके कमरे और बाथरूम को छान मारा लेकिन अनिका कहीं नहीं थी। निराश होकर वो धम्म से वहीं बिस्तर पर बैठ गया और उसकी आंखों में दो आंसू छलक आये।


* * *

आशुतोष कुछ देर अनिका के कमरे में गुमसुम बैठा रहा। उसकी आंखों से लगातार अश्रु- वर्षा हो रही थी।

"नहीं अघोरा.... इतने सालों बाद मेरी जिंदगी में खुशियां लौटकर आईं है। इन्हें मैं तुम्हें बर्बाद नहीं करने दूंगा।" आशुतोष ने आंसू पोंछते हुए कहा और तेजी से अपने कमरे में लौटा, जहां उसने उस आत्मा को बांध रखा था।

"अघोरा अनिका को कहां लेकर गया है?" आशुतोष ने गुस्से में जेब से भभूत निकालकर उस पर उड़ेलते हुये कहा।

"वो महल.... ये भभूत मुझसे दूर रखो। वो उसे कांडगढ़ के महल ले गया है।" आत्मा सुबकते हुये बोली- "आज से उन्नीस दिन बाद वो महाअमावस की रात है, जब सारे ग्रह- नक्षत्र और चंद्रमा एक सीध में होंगें। उस दिन ग्रहण लगेगा और ग्रहणकाल में अनिका का रक्तपान कर वो महाशक्तिशाली हो जायेगा और एक राक्षस का शरीर भी पा लेगा।"

"मुझे कांडगढ़ का रास्ता बताओ...." आशुतोष ने एक मुठ्ठी भभूत हवा में छिटकते हुये कहा, लेकिन इस बार वो हुआ जिसकी उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। अचानक उस साये का रूप बदलने लगा और कुछ ही देर में उसके सामने जोगन बनी अनिका थी।

"तुम्हारा भ्रम- जाल मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता डायन!" आशुतोष ने गुस्से में जेब से भभूत की पोटली निकाली और पूरा भभूत उस पर उड़ेल दिया लेकिन ये देखकर भौचक्का रह गया कि उस पर इस भभूत का कोई असर ही नहीं हुआ।

"ये तुम्हारा भ्रम नहीं सच्चाई है और मैं अनिका नहीं अरूंधती हूं।" उसने मुस्कुराते हुये कहा- "इस पवित्र भभूत के कारण मैं अघोरा के प्रभाव से मुक्त हो गई और अब यह मुझपर कोई असर नहीं करेगा।"

"अरूंधती? वही अरूंधती जिसकी अभी कहानी सुनाई थी?" आशुतोष चौंका।

"हां, मैं वही अभागी हूं। स्वामी महेन्द्रनाथ के बाद अघोरा ने मुझे भी मार दिया और मेरी आत्मा को अपने वश में कर लिया लेकिन आज तुम्हारे कारण मैं उसके वशीकरण से मुक्त हूं और जल्द ही इस धरती से भी मुक्ति पा जाऊंगी। अब कोई शक नहीं कि अघोरा का अंत समय आ गया है।" अरूंधती के मुखमंडल पर एक चमक उभरी।

"लेकिन कैसे? मुझे न तो ये पता है कि अघोरा कहां मिलेगा और न ही ये कि उसे कैसे खत्म करूं? मेरे ही भरोसे अनिका यहां आई और अब उसकी जान खतरे में है...." आशुतोष ने अपना मुंह घुटनों में छिपा लिया।

"इस तरह हिम्मत हारने से तो काम नहीं चलेगा...." आशुतोष को अपने सिर पर ठंडक महसूस हुई। उसने नजरें उठाई तो पाया कि अरूंधती उस भभूत के घेरे से निकलकर उसके सिर पर हाथ फेर रही थी। बोली- "अघोरा को कैसे हराना या मारना है ये तो मैं नहीं जानती और न ही उसके गढ़का रास्ता तुम्हें बता सकती हूं क्योंकि उसके जाल से मुक्त होते ही पता नहीं क्यों मुझे उस मार्ग का विस्मरण हो आया है। परन्तु तुम चिंता न करो। मैं उनको जानती हूं, जो इस काम में मदद कर सकते हैं।"

"कौन?" आशुतोष ने आशापूर्ण नेत्रों से उसके चेहरे को ताकते हुये पूछा।

"गुरू महेन्द्रनाथ...." अरूंधती मुस्कुराकर बोली।

"महेन्द्रनाथ! लेकिन उनको तो अघोरा ने मार ड़ाला था? क्या उनको मुक्ति नहीं मिली?"

"जब तक शरीर का अंतिम संस्कार न हो या समाधि न ले ली जाये, मुक्ति संभव नहीं है।" अरूंधती उदास स्वर में बोली।

"तो फिर आप कैसे कह रहीं है कि आपको मुक्ति मिलने वाली है?" आशुतोष चकराया सा पूछने लगा।

"क्योंकि मुझपर इस पवित्र भभूत का स्पर्श हुआ है। अरूंधती ने समझाते हुये कहा- "आत्मा मौत के बाद पितृ- लोक जाती है और तेरहवीं की क्रिया के बाद गोदान होने पर अपने कामों के हिसाब से स्वर्ग या नरक जाती है। जिनकी तेरहवीं नहीं होती वो प्रेत- लोक में प्रेत बनकर मुक्ति की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि बिना गोदान आत्मा वैतरणी नहीं पार कर सकती। मगर अतृप्त आत्माएं इसी वायुमंडल में कैद रह जाती है और उन्हें मुक्त कराने के दो ही उपाय है, या तो विधिवत संस्कार या श्राद्ध- कर्म या फिर अपनी आत्म- शक्ति से बलात् उन्हें मुक्त करना। मैं अघोरा के वश में थी, लेकिन अब मुझ पर से उसका साया हट चुका है और मैं पितृ- लोक जाने को स्वतंत्र हूं। लेकिन अगर तेरह दिन में मेरा श्राद्ध- कर्म नहीं हुआ तो मुझे भी प्रेत- योनि में जाना पड़ेगा।"

"मतलब अब बीस नहीं तेरह दिन हैं.... यार टाइम कम हो गया और प्रॉब्लम जस की तस है!" आशुतोष अब तक विषाद से निकल चुका था- "मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि करना क्या है? महेन्द्रनाथ भी अब तक क्या उस अघोरा की कैद में हैं?"

"नहीं.... अघोरा में उस वक्त इतनी ताकत नहीं थी कि उन जैसी सात्विक शक्ति को कैद कर पाता।" अरूंधती ने कहा- "लेकिन मुझे विश्वास है कि उनकी आत्मा जरूर कहीं आस- पास ही है।"

"तो आप महेन्द्रनाथ को ढूंढियें, मैं देवलदेवी मंदिर को ढूंढता हूं।" आशुतोष उठता हुआ बोला।

"ढूंढने की जरूरत क्या है? राज- राजेश्वरी मंदिर को ही देवल मंदिर कहते हैं, क्योंकि वो देवलगढ़ की कुलदेवी थी।" अरूंधती ने हवा में गायब होने से पहले कहा।

* * *


सुबह अनिका की जब आंख खुली तो उसने खुद को एक आलीशान कमरे में पाया। कमरे की छत से बेशकीमती झाड़- शीशे लटक रहे थे। अनिका चौंककर बिस्तर से उठी और अपने आस- पास की चीजों को ध्यान से देखने लगी। कमरे की दीवारें सफेद संगमरमर की बनीं थीं, जिन पर हाथ से बने कई खूबसूरत पेंटिग्स लटक रही थी। जगह- जगह पर दियों के स्टैंड्स थे, जिनपर अबतक दिये जल रहे थे।

"ये कौन सी जगह है? मैं तो होटल के कमरे में थी...." अनिका ने कुछ सोचते हुये अपनी कलाई पर चिकोटी काटी तो उसकी सिसकी छूट गई।

"व्हट द हैल....! अगर ये सपना नहीं है तो कौन सी दुनिया है? ईवन आज के जमाने में दिये कौन जलाता है?" अनिका चकराई सी बेड़ से नीचे उतरी और घूम- घूमकर पूरे कमरे को देखने लगी।

"हैलो? कोई है?" अनिका ने आवाज लगाई लेकिन कोई जवाब नहीं मिला तो आश्चर्य से चारों तरफ देखती कमरे से बाहर निकली।

कमरे से निकलकर वो बरामदे में आई तो पाया कि वो एक बहुत बड़ी हवेली या यूं कहे कि महल के बरामदे में खड़ी थी। पूरा महल संगमरमर की सफेद परतों से अटा पड़ा था, जिसकी छतों पर बेशकीमती झाड़- फानूस लटक रहे थे। पूरा फर्श बहुमूल्य मखमली/रेशमी दरियों से ढ़का था। दीवारों पर बारहसिंहा, शेर, बाघ जैसे कई जानवरों के सिर और कई कटार, खंजर और तलवारें लटकीं थीं। विस्तारित नेत्रों से अपने चारों और देखती वो ताज्जुब में थी कि इतने आलीशान महल में उसे कोई दूसरा आदमी क्यूं नहीं दिख रहा?

अपने विचारों में खोई वो चलते- चलते एक दालान में जा पहुंची तो पहली बार उसे कोई दिखा। पुराने जमाने के सिपाहियाना ठाठ वाला एक आदमी उसे देखते ही लपककर उसके पास चला आया।

"महामहिम की आज्ञा से इस क्षेत्र में किसी का भी प्रवेश वर्जित है राजकुमारी!" सिपाही ने अदब से कहा लेकिन उसे देखते ही अनिका की भंवे चढ़ गईं।

"ये कौन सी जगह है और मैं यहां कैसे आई?" आनिका ताज्जुब लेकिन क्रोधमय स्वर में बोली।

"ये आपका ही महल है राजकुमारी।" सैनिक सिर झुकाकर बोला।

"मैं न तो कोई राजकुमारी हूं और न ही ये मेरा महल है...." अनिका चिढ़कर बोली- "मुझे तुम्हारे मालिक से बात करनी है। तुम अभी मुझे उनके पास ले चलो।"

"महामहिम अभी यज्ञ में हैं राजकुमारी...." सैनिक ने विनय की- "उनका यज्ञ पूर्ण होते ही मैं उन्हें आपका संदेश दे दूंगा, तब तक आप अपने कक्ष में प्रतीक्षा कीजिये।"

सिपाही की बात सुनकर अनिका को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन और कोई तरीका न देख चुपचाप वापस लौट गई।

* * *


अनिका के गायब होने से आशुतोष परेशान होकर कमरे में चहलकदमी कर रहा था। हालांकि अरूंधती ने उसे राज- राजेश्वरी मंदिर जाने को कहा था, लेकिन उसे अरूंधती पर भरोसा नहीं था। उसका दिल कह रहा था कि जब सिद्धबली के भभूत ने उस पर असर नहीं किया तो वह एक पवित्र आत्मा थी, लेकिन उसका दिमाग ये मानने को तैयार ही नहीं था। कारण यह था कि वो अघोरा की गुलाम थी और उसने खुद कहा था कि उसे आशुतोष को रोके रखने के लिये भेजा गया था।

"आशुतोष...." उसे अपने कानों में एक आवाज सुनाई दी- "ऐसे धीरज खोने से समस्या का हल नहीं निकलेगा।"

"तो मैं क्या करूं? मैं तो ये भी डिसाइड़ नहीं कर पा रहा हूं कि उस औरत पर भरोसा करूं या नहीं।" आशुतोष दुविधा में बोला।

"आत्मा और मन के द्वंद में बुद्धि से विचार करना उचित नहीं है। आत्मा तो स्वयं ईश्वर का अंश है, अत: आत्मा का निर्णय कभी गलत नहीं होगा। तुम्हारी आत्मा क्या कहती है?"

"लगता है आप बहुत बड़े भक्त- टाइप हैं...." आशुतोष व्यंग्यपूर्वक हंसा- "सीधे- सीधे बता क्यों नहीं देते कि भरोसा करूं या नहीं? मुझे तो ये भी नहीं पता कि आप कौन हैं, लेकिन अगर आज आपके कहने पर भभूत लाकर अपने पास नहीं रखी होती तो मेरा तो गेम- ओवर हो जाना था।"

"अरूंधती का कथन उचित है। राज- राजेश्वरी मंदिर एक जागृत शक्तिपीठ है और वही तुम्हारी सब समस्याओं का समाधान भी है।"

"समस्या तो ये भी है कि बिना देखे- भाले मैं आपकी बात मान रहा हूं, क्या इसका भी जवाब मिलेगा?" आशुतोष मुस्कुराकर बोला।

"ह.... ह...." आशुतोष को हंसने की आवाज आई- "हमने कहा न कि सभी समस्याओं का समाधान होगा।"

* * *


उधर अनिका सिपाही की बात सुन खुन्नस के साथ वापस लौटने लगी, लेकिन उसे आश्चर्य हो रहा था कि इतना बड़ा महल इस तरह से वीरान क्यों है? पूरे महल में एक अजीब सा सन्नाटा छाया था, मानों रात को किसी मरघट में आ गये हों। पूरे महल में उसे इंसान तो क्या जानवर या पंछी भी नजर नहीं आये।
दालान से बरामदे में आते ही अनिका चकरा गई। उसके सामने अनेकों कमरे थे, जिनमें से उसे समझ ही नहीं आया कि वो पता कैसे करे कि वो कौन से कमरे से बाहर आई। इसी उधेड़बुन में वो हर कमरे के दरवाजे को गौर से देखते हुये आगे बढ़ने लगी लेकिन चार- पांच दरवाजों को पार कर भी उसे कुछ नहीं सूझा।

"ये अजीब दिक्कत है यार! एक तो ये समझ नहीं आ रहा था कि मैं होटल के कमरे से यहां कैसे पहुंची और अब ये दरवाजों की पहेली।" अनिका गुस्से से फुंफकारी और एक दरवाजे को धका दिया लेकिन सामने का दृश्य देख उसकी आंखे फटीं की फटीं रह गई।

वो पूरा कमरा ही धूल से भरा पड़ा था, जिसमें जगह- जगह मकड़ी के जाले लगे थे, मानों सालों से कमरे को खोला ही न गया हो। कमरे में बिल्कुल अंधेरा था, जिसे खिड़की के पटों में बने सुराखों ये आ रही सूर्य- रश्मियां भेद रहीं थी। कमरे के बिल्कुल बीच में एक मंडप था, जिसपर शिवलिंग स्थापित था, लेकिन वर्षों से बंद रहने के कारण धूल से अटा पड़ा था और अपनी चमक खो बैठा था।

"स्ट्रैंज...." अनिका बुदबुदाई- "शिव- मंदिर का ऐसा हाल कि मानों सदियों से खुला ही न हो! लेकिन कैसे? जब मालिक यहीं है तो मंदिर का न खुलना.... एट- लीस्ट तीज- त्योहारों में तो...."

और तभी अनिका को वो समझ आ गया, जो उससे अब तक छुपा था।

"अघोरा...." अनिका के मुंह से निकल पड़ा- "लेकिन मुझे ये पहले क्यूं समझ नहीं आया? ओह गॉड.... अब क्या करूं?"

अनिका भयभीत सी अपने चारों तरफ नजर दौड़ाने लगी। हालांकि उसके मन के एक कोने में ये निश्चिंतता थी कि वो इस वक्त शिव- मंदिर में है, लेकिन साथ ही ये संशय भी था कि अगर ये मंदिर इतने सालों से वीरान है तो क्या शिवलिंग अब भी जाग्रत होगा? वो अभी इसी उहापोह में थी कि उसे एक उपाय नजर आया। उसकी नजर शिवलिंग के पास गढ़े त्रिशूल पर पड़ी और उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।

"तुम अब अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो पाओगे अघोरा।" वो मुस्कुराते हुये बोली और त्रिशूल की तरफ बढ़ने लगी।


* * * 



क्रमशः

----अव्यक्त


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1 Comments

Pamela

02-Feb-2022 01:57 AM

ऐतिहासिकता में आपका कोई तोड़ नही..

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